
कोरोना महामारी की इस विपदा में जनजातीय जीनवशैली न सिर्फ आदिवासी गांवों को संक्रमण के खतरे से बचा रही है, बल्कि लॉकडाउन के दौरान सबसे बड़ी जरूरत बनकर सामने आई क्षेत्रीय निर्भरता के अनुपालन की भी तस्दीक करती है। आदिवासी समाज का यह पारंपरिक कार्य-व्यवहार कोरोना से जूझ रही दुनिया के लिए जिंदगी का अहम सबक हो सकता है।जहां तक आदिवासी समाज के बीच घुसपैठ में कोरोना संक्रमण की नाकामी का सवाल है, इसकी तीन खास वजहें हैं। पहली आदिवासी समाज के लोगों की बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता, जिसका मूल आधार है शुद्ध और प्राकृतिक खान-पान। जंगलों में उगने वाले कंद मूल, प्राकृतिक तरीके से उगाई गई साग-सब्जियां और खाद या कीटनाशकों की खेती से पैदा अनाज ही इनका भोजन रहा है। दूसरा, पूरे साल आदिवासी गांव के लोगों की दिनचर्या एक जैसी ही रहती है। हर मौसम में सूर्योदय से पहले जगना और पूरे दिन काम के बाद देर शाम ही सो जाना। यह अनुशासन भी उन्हें बेहतर रोग प्रतिरोधक क्षमता देता है।आदिवासी समाज में साफ-सफाई का विशेष महत्व है। फूस, बांस और मिट्टी के तैयार मकानों में भी सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। कई पर्व-त्योहार भी स्वच्छता के संदेश से सीधे जुड़े हैं। समाज में सफाई की सामुदायिक परंपरा भी रही है। गांव के लोग नदियों और जलाशयों को स्वच्छ रखते हैं। चौथा, आदिवासी समाज के लोगों का बाहरी लोगों से मिलना-जुलना काफी कम होता है। इसे हम आज की भाषा में सोशल डिस्टेंसिंग का कठोर पालन भी कह सकते हैं। गांव में यदि दूसरे इलाके के लोग पहुंचते हैं तो पहले उनकी पूरी पड़ताल की जाती है। हर तरह से संतुष्ट होने के बाद ही उन्हें गांव में प्रवेश की अनुमति मिलती है। इस सामाजिक व्यवस्था से उनमें रोग संक्रमण का खतरा बेहद कम होता है।
गांव में ही आजीविका से आत्मनिर्भर : प्रकृति आधारित आजीविका के कारण आदिवासी गांवों से रोजगार के लिए पलायन करने वालों की तादाद कम है। मनरेगा ने उनके लिए गांवों में रोजगार के अवसर बढ़ाए हैं। इसके अतिरिक्त वन उत्पादों के कई उद्यम गांव में ही चल रहे हैं, जिनमें बड़े पैमाने पर महिलाएं भी शामिल हैं। खासकर महुआ, बांस के बर्तन, सब्जी उत्पादन आदि उनकी आजीविका के मजबूत संबल हैं। राज्य की सरकार सेवाओं और औद्योगिक इकाइयों में प्राथमिकता पर नियोजन मिलने से भी आजीविका के आधार का विस्तार हुआ है। इसलिए आदिवासी राज्य में तो इधर से उधर हुए लेकिन दूसरे राज्यों में पलायन नहीं के बराबर हुआ। बड़े फलक पर अपनी पहचान बनाने की गरज से इक्का-दुक्का लोग जरूर देश के दूसरे महानगरों में या फिर सात समुंदर पार गए। बहुतायत के गांव में ही रहने के कारण लॉकडाउन से उन्हें परेशानी किसी भी अन्य समाज के लोगों से कम हउ का खासा असर उनकी जिंदगी पर नहीं पड़ा है। वे अपनी क्षेत्रीय निर्भरता के बूते इस क्रांतिक घड़ी को भी आसानी से जी पा रहे हैं।